भारत के संविधान निर्माण में डॉ0 बी.आर. आम्बेडकर का योगदान
भारत के संविधान निर्माण में
डॉ0 बी.आर. आम्बेडकर का योगदान
सर्व प्रथम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण कार्य एक ऐसे सार्वभौमिक कानून की रचना करना था । जिसके माध्यम से उन उददेश्यों को प्राप्त कर सके जिसके लिए हमने आजादी की लडाई लडी थी और लाखो लोगो की कुरबानी देकर स्वतंत्रता प्राप्त की थी । हमारा देश छोटी-छोटी रियासतो में बटंा हुआ था । स्वतंत्रता के बाद सभी राजा, महाराज, रियासत स्वतंत्र हो गई, और उन्हें एकत्र करना महत्वपूर्ण उद्देश्य था। इसके लिए देश में एक संगठित कानून होना आवश्यक था । जिसके लिए देश मंे सर्वोच्च कानून संविधान की संरचना की गई है ।
भारत मंे एक विशाल देश है, जिसमें कई धर्म, भाषा, समुदाय के लोग रहते है । एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र से भिन्न है । यहां हर पांच कोस पर जाति, भाषा, धर्म, वेशभूषा, वाणी बदल जाती है । यहां पर गरीबी, बेकारी, भुखमरी, है तो दूसरी और अमीरी और प्राकृतिक संसाधनो की भरमार है । जिनका उचित दोहन नही हो रहा है । अमीरो और गरीबो के बीच खाई है । इन सबके बीच तालमेल बैठाने के लिये एक संविधान की रचना आवश्यक थी ।
भारत सदियों से गुलाम रहा है और जिसका मुख्य कारण विदेशी आक्रमण रहा ,जो भारत में एक केन्द्रीय शक्ति के अभाव को दर्शाता है । इसलिये भारत में एक ऐसे संबिधान की आवश्यकता थी जिसमें केन्द प्रधान व अधिक शक्तिशाली हो। इसके लिए भी एक लचीले संविधान की आवश्यकता थी ।
आजादी की लड़ाई में लोगो ने लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की थी । इसलिये भारत मेंएक धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक, गणराज्य बनाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। संविधान निर्माण के लिए सर्व प्रथम कैबिनेट-योजना के अंतर्गत नवम्बर 1946 को संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव किया गया । कुल 296 सदस्य चुने गये, जिसमें से 211 सदस्य कांग्रेस के, 73 मुस्लिम लीग के तथा शेष स्थान खाली रहे । बाद में मुस्लिम लीग के द्वारा बहिष्कार किया गया ।
संविधान सभा के प्रमुख सदस्यों में जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, डॉ. आम्बेडकर, मौलाना आजाद, गोपाल स्वामी आयंगर, गोविन्द बल्लभ पन्त, अब्दुल गफफार खां, टी.टी.कृष्णामाचारी, अल्लादी कृष्णास्वामी अययर, हृदयनाथ कंुजरू, सर एच.एस. गौड़, के.टी.शाह, मसानी, आचार्य कृपालानी आदि शामिल थे ।
संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई तो उसके सामने केबिनेट योजना के द्वारा लगाई गई अनेक पाबंदिया थी । जो अगस्त 1947 में स्वतंत्रता अधिनियम पारित होने के बाद से समाप्त हो गई। इसके बाद संविधान सभा एक सम्प्रभुनिकाय बन गयी और वह भारत के लिए जैसा भी चाहे संविधान बना सकती थी ।
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद चुने गये । प्रारूप समिति का काम विधिवेत्ता, राजनीतिक नेता, दार्शनिक, मानवविज्ञानी, इतिहासकार, वक्ता, अर्थशास्त्री, शिक्षक और सम्पादक, एम.ए., पी.एच.डी, कोलम्बिया विश्वविद्यालय डी.एस.सी. लन्दन, एल.एल.डी कोलम्बिया वि.वि. डी.लिट उस्मानिया वि.वि., बार एट लॉ लन्दन, डॉ. भीम राव आम्बेडकर को सौंपा गया ।
संविधान के प्रारूप पर 8 महीने बहस हुई और इस दौरान उसमें भी अनेक संशोधन किये गये । संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुए । इस प्रकार संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन के अथक और निरंतर परिश्रम के पश्चात 26 नवम्बर 1949 तक संविधान के निर्माण का कार्य पूरा किया । संविधान के कुछ उपबंधों तो उसी दिन लागू हो गये शेष उपबंध 26 जनवरी 1950 को प्रवृत हुए जिसे संविधान के प्रवर्तन की तारीख कहा जाता है।
डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर ने संविधान निर्माण मे अमूल्य योगदान दिया है और यही कारण है कि उन्हें भारत के संविधान का वास्तुकार, निर्माणकर्ता विश्वकर्मा, शिल्पकार कहा जाता है । भारत का संविधान उनकी अमर कृति मानी जाती है। बाबा आम्बेडकर ने अपने जीवनकाल में अनेक पुस्तके लिखी है परन्तु उन्हे दुनिया भारत के संविधान के निर्माता के रूप में ही जानती-पहचानती हैं । जिसके लिए उन्हे डी लिट की उपाधी भी प्रदान की गई है ।
दलित वर्ग से संबंधित होने के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त बाबा आम्बेडकर ने दलितो के कल्याण के लिए संविधान में अनेक प्रावधानों की वकालत की है तथा संविधान के उददेशिका से ही उसके प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को -सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट् की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होने वाली बात बलवती होती है ।
बहुजन हिताए बहुजन सुखाए तथा अपनी रक्षा स्वयं करो की भारतीय अवधारणा को संविधान का आधारभूत लक्ष्य बनाया गया है । सामाजिक न्याय को बल प्रदान किया गया है । व्यक्ति को पद और अवसर की सामानता प्रदान की गई है। राज्य का कोई धर्म नहीं होगा इसके लिए धर्मनिर्पेक्षता रखी गई है । प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने की स्वतंत्रता दी गई है ।
बाबा ऑम्बेडकर का उददेश्य था कि भारत के संविधान में समानता , और न्याय के आदर्शो की स्थापना, राजनैनिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हो, इसके लिए संविधान में धर्म, मूलवंश, जाति ,जन्म स्थान के आधार पर व्यक्तियों में, वर्ग,ं विभेद का प्रतिषेध किया गया है । इसके लिए धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व या विधानमण्डलों या सरकारी नौकरियों मंे पदो के लिए देश के समाजिक और आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो के लिए समुचित उपबंध किया है।
प्रजातांत्रिक समानता के आदर्श केवल तभी साकार हो सकते है जब कि देश के समस्त वर्गो को एक स्तर पर लाया जाये । इसलिए हमारे संविधान में पिछडे वर्गो को देश के अन्य वर्गो के स्तर पर लाने के लिए कुछ अस्थाई प्रावधान रखे गये । जिसमें बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों पर अत्याचार न कर सकें । संविधान राज्य को जनता के दुर्बलतर और विशेषतया अनुसूचित जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
डॉ. आम्बेडकर के द्वारा भारत के संविधान में भारत के प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य को राज्यों का संघ घोषित किया गया है । विभाजन के पश्चात सुदृढ केन्द्रयुक्त परिसंघ की स्थापना का उददेश्य राजनीतिक एंव प्रशासनिक दोनो ही रहा है । इसके बाद भी संविधान को पूर्णरूपेण परिसंघात्मक नहीं बनाया गया है।
संविधान सभा के अनुसार संघ को परिसंघ कहना आवश्यक नहीं था । संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए प्ररूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आम्बेडकर ने कहा था कि यद्यपि यह संविधान संरचना की दृष्टि से फेडरल हो सकता है, किन्तु कुछ निश्चित उददेश्यों से समिति ने इसे संघ कहा है । इसके मुख्य दो उददेश्य हैं-
े पहला-अमेरिकी संघवाद की भांति भारत का संघवाद संघ की इकाइयों के बीच परस्पर करार का परिणाम नहीं है ।
दूसरा-राज्यों को स्वेच्छानुसार परिसंघ से पृथक होने का अधिकार नहीं दिया गया है ।
डॉ. आम्बेडकर ने संघ शब्द का आशय इस प्रकार व्यक्त किया है-यद्यपि भारत को एक फेडरेशन से पृथक होने का अधिकार ही दिया गया है । फेडरेशन एक संघ है क्यों कि यह कभी समाप्त नहीं होगा । यद्यपि प्रशासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण देश और इसके निवासी एक ही स्त्रोत से उदभूत सर्वोच्च शक्ति के अधीन रहने वाले व्यक्ति है । राज्यों को इस संघ से पृथक होने का कोई अधिकार नहीं है । संघ का नाम इण्डिया अथवा भारत है । प्रथम अनुसूची में विनिर्दिष्ट इसके सदस्यों को राज्य कहा जाता है ।
संविधान में सरकार के रूप की व्याख्या करते हुए । डॉ.आम्बेडकर ने कहा था कि अमेरिका में राष्ट्पति प्रणाली की सरकार है जहां राष्ट्पति प्रमुख कार्यकारी होता है। मसौदा संविधान के तहत राष्ट्पति अंग्रेजी संविधान के राजा के तरह होता है । वह राज्य का प्रमुख हेाता है । परन्तु कार्यापालिका का नहीं ।वह देश का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन शासन नहीं करता है ।
डॉ.आम्बेडकर का कहना था कि ‘‘ अमेरिकी कार्यकारी एक गैर संसदीय कार्यकारी हैं जो अपने अस्तित्व के लिए कांग्रेज में बहुमत पर निर्भर नहीं है। जब कि ब्रिटिश प्रणाली एक संसदीय है जहां कार्यकारी अधिकारी, संसद में बहुमत पर निर्भर करता है ।’’
एक गैर संसदीय कार्यकारी होने के नाते, संयुक्त राज्य अमेरिका में कांग्रेस कार्यकारी को त्याग नहीं देते हैं । कार्यकारी विधायिका के लिए कम जिम्मेदार होता है । जबकि संसदीय कार्यकारी में अधिक जिम्मेदार होता है । संविधान का मसौदा अधिक जिम्मेदारी पंसद करते हैं ।
संविधान का मसौदा के अन्य सुविधाओं इंगित करते हुए आम्बेडकर ने कहा ’’ एक दोहरी राजनीति होते हुए संविधान के मसौदा में एक एकल नागरिकता है । एक एकीकृत न्यायपालिका है’’ जो संवैधानिक कानून नागरिक कानून, और आपराधिक कानून के तहत होने वाले सभी मामलो में उपचार प्रदान करती हैं और एक आम अखिल भारतीय सिविल सेवा है । जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के तहत यहंा दोहरी नागरिकता है । एक संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए और राज्यों के लिए वहां एक संघीय न्यायपालिका है और एक राज्य न्यायपालिका और वहां भी एक संघीय सिविल सेवा और राज्य सिविल सेवा है ।
रिपब्लिकन फार्म की सरकार के रख रखाव के लिए आम्बेडकर ने कहा है ’’ संयुक्त राज्य अमेरिका में हर राज्य को अपना संविधान बनाने की स्वतंत्रता है जबकि भारतीय संघ और भारत के राज्यों का एक ही संविधान है जिसमें से बाहर नही निकला जा सकता हैं और उसके भीतर ही सारे कार्य हो सकते हैं ।
कठोरता के संबंध में आम्बेडकर ने कहा कि सामान्य समय में संसद के पास शक्ति हैं कि वह विश्ेाष रूप से प्रांतीय विषयों पर कानून बना सकता है और यह सुविधा भी है कि वह संविधान में संशोधन भी कर सकता है । तो इसकी खास विशेषता यह है कि यह एक लचीला फ्रेडरेशन है ।
डॉ. आम्बेडकर का कहना था कि ’’मुझे लगता है कि हमारा संविधान व्यवहारिक है, यह लचीला है, और इतना मजबूत है कि शांति के समय युद्ध के समय देश को एक साथ रखता है । दरअसल अगर नए संविधान मे चीजें गलत हो जाए तो इसका कारण यह नहीं है कि हमारे पास एक बुरा संविधान था ।
प्रारूप समिति का अध्यक्ष होने के नाते आम्बेडकर ने संविधान सभा में कई विकट अंक और कानून का ब्यौरा दिया था । केन्द्र की शक्तियों के बारे में उन्होंने चेतावनी दी है कि केन्द्र की ताकत उसके वजन के अनुरूप होनी चाहिए ।यह मूर्खता होगी उसको इतना मजबूत बनाना कि वह अपने वजन के कारण गिर जाए ।
भारतीय संघ के अध्यक्ष की शक्तियों के संबंध में उन्होंने कहा ’’भारतीय संघ के अध्यक्ष आम तौर पर अपने मंत्रियों की सलाह से बाध्य होता है । वह उनकी सलाह के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता और न ही उनकी सलाह के बिना राष्ट्पति विवेकाधीन कार्य नहीं कर सकता । परन्तु उसके पास कुछ विशेषाधिकार होते हैं ।
भारत का संविधान संघात्मक है । जिसमें सत्ता संसद में नीहित होती है और संसद जनता के प्रति उत्तरदायी होती है । डॉ. अम्बेडकर ने सर्वप्रथम सरकार के संबंध में मत व्यक्त किया था कि भारत में अमेरिका की राष्ट्पति प्रणाली होना चाहिए । जिसमें राष्ट्पति कार्यपालन में प्रधान होती है और ब्रिटेन में राजा की तरह होता है । किन्तु वह कार्यपालिका का प्रमुख नहीं होता है । वह राष्ट् का प्रतिनिधि होता है जो शासन नहीं करता है । अमेरिका का राष्ट्पति जनता के प्रति उत्तदायी नहीं होता है । जबकि ब्रिटेन में जनता के प्रति उत्तरदायी होता है ।
जबकि हमारे भारत में इसके बीच की व्यवस्था रखी गई है और कार्यपालिका को विधायिका प्रति उत्तरदायी बनाया गया है ।विधायिका को संसद के प्रति उत्तदायी बनाया गया है । संसद जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि के प्रति उत्तदायी होती है ।
इस प्रकार जनता के प्रति राष्ट् उत्तरदायी होता है । इस व्यवस्था के कारण राष्ट् युद्ध बाहरी आक्रमण के समय एक हो जाता है और शांति व्यवस्था के समय राज्य में चुनी गई सरकारे अपना अपना कार्य करती है और जनता के प्रति उत्तरदायी होती है । इससे देश की एकता और अखण्डता बनी रहती है ।
हमारे यहां डॉ. अम्बेडकर के अनुसार एकल नागरिकता है, जिसका मुख्य उददेश्य आम जनता का अखिल भारतीय सेवा में चुना जाना है । इसी प्रकार एकीकृत न्यायव्यवस्था है,ं जिसमें उच्चतम न्यायालय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है।
संविधान को संघात्मक दर्जा प्रदान करने के लिए संघ और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है । केन्द्र और राज्य के बीच विवाद होने पर हल निकालने का कार्य उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा जाता है। इसके साथ ही साथ यह उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों, अल्प संख्कों के अधिकारों का भी ध्यान में रखता है । इसलिए इसे सामाजिक क्रांति के संरक्षक के रूप में जाना जाता है।
केन्द्र की तरह राज्य में भी प्रशासन संघात्मक है । राज्य कार्यपालिका का प्रधान राज्यपाल होता है, जो मंत्री परिषद की सलाह से कार्य करता है । विधान मण्डल विधानसभा राज्यपाल से मिलकर बनती है । संसद सदस्यों को संसदीय विशेषाधिकार प्रदान किये गये है। जिसमें बोलने एंव भाषण की स्वतंत्रता दी गई है ताकि वे दबाव से मुक्त होकर कार्य करे इसके लिए संवैधानिक संरक्षण प्रदान किये गये है ।
भारत मंे संसदीय सरकार है । जिसमें राष्ट्पति संवैधानिक प्रमुख होता है लेकिन सम्पूर्ण शक्ति मंत्रीमण्डल में निहित होती है, जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होता है । मंत्री परिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है । मंत्री परिषद के सदस्य जनता के चुने प्रतिनिधि होते हैं । कार्यपालिका को लोकसभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है । विधायक तथा कार्यपालिका मनमानी कार्य न करें इसके लिए न्यायपालिका को शक्ति प्रदान की गई है ।
भारत के संविधान में संघात्मक संविधान की सभी विशेषताएं मौजूद हैं। भारत के संविधान में शक्तियों का विभाजन, संविधान की सर्वोपरिता, लिखित संविधान, संविधान की अपरिवर्तन शीलता, न्यायपालिका का प्राधिकार जैसे महत्वपूर्ण तत्व विद्धमान है ।
संघात्मक संविधान का केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियेां का विभाजन के आवश्यक तत्व है । यह विभाजन संविधान के द्वारा ही किया जाता है । प्रत्येक सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में प्रमुख होती है और दूसरे के अधिकारों एंव शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं करती । इस प्रकार से संघवाद में राज्य की शक्तियों का अनेक सहयोगी संस्थाओं में विकेन्द्रीकरण होता है ।
संविधान सरकार के सभी अंगो-कार्यपालिका, विधायिका और न्याय पालिका का स्त्रोत होता है । उनके स्वरूप, संगठन और शक्तियों से संबधित सभी उपबंध संविधान ही में निहित होते हैं । संविधान उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है जिनके भीतर वे कार्य करते हैं । सभी संस्थाएं संविधान के अधीन ेऔर उसके नियंत्रण में कार्य करती है ।
संघीय व्यवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है और उसके सुचारू रूप से कार्य करने के लिए संविधान उसका लिखित होना आवश्यक है । केन्द्रीय एंव प्रान्तीय विधानमंडलों की विधायी शक्ति का स्त्रोत संविधान ही है और उनके द्वारा बनाई गई विधियां संविधान के अधीन होती है । संविधान के उपंबंधों के विरूद्ध होने पर न्यायालय उन्हें अवेध घोषित कर सकता है । इसी प्रकार उन्हंे संविधान द्वारा प्रदत्त अपने सभी अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही करना होता है ।
भारतीय संविधान की प्रकृति के बारे में विधिशास्त्रियों में काफी मतभेद रहा है । संविधान निर्माताओं के अनुसार भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि मेरे इसविचार से सभी सहमत है कि यद्यपि हमारे संविधान में ऐसे उपबंधों का समावेश है जो केन्द्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देते हैं जिनमें प्रान्तों की स्वतंत्रता समाप्त सी हो जाती है । फिर भी वह संघात्मक संविधान है ं
संविधान की परिवर्तनशीलता आवश्यक है । लिखित संविधान स्वभावतः अनम्य होता है । संविधान की नम्यता और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है । जिस संविधान में संशोधन सरलता से किए जा सकते हेैें उसे नम्य संविधान कहा जाता है । जिस संविधान में संशोधन विशेष प्रक्रिया के अनुसार की जा सकते हैं जो कठिन प्रक्रिया होती है । वे अनम्य संविधान होता है ।
इस संबंध में पंडित जवाहर लाल नेहरू का कहना है कि हालंाकि हम इस संविधान को इतना ठोस और स्थायी बनाना चाहते हैं जितना कि हम बना सकते हैं, फिर भी संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है । इसमें कुछ सीमा तक परिवर्तनशीलता होनी ही चाहिए । यदि आप किसी वस्तु को अपरिवर्तनशील और स्थायी बना देंगे तो आप राष्ट् की प्रगति रोक देंगे और इस प्रकार आप एक जीवित और संगठित राष्ट् की प्रगति को भी रोक देंगे- किसी भी अवस्था में हम इस संविधान को इतना अनम्य नहीं बना सकते थे कि यह बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित न हो सके । जब कि दुनिया एक संक्रान्तिकाल में है और हम परिवर्तन की अत्यन्त ही तीव्र गति के युग से गुजर रहे हैं, तब सम्भव है कि हम आज जो कुछ कह रहे हैं, कल वहीं पूरी तरह से लागू न हो सके ।’’
संविधान के उपबंधों का सही सही निर्वचन करने के लिए ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है जो स्वतंत्र एंव निष्पक्ष हो । संघीय संविधान में यह कार्य न्यायपालिका को सौंपा गया है । संविधान के उपबंधों के निर्वचन के संबंध में अंतिम निर्णय देने का प्राधिकार न्यायपालिका को ही प्राप्त हे । यह संस्था किसी भी सरकार के अधीन नही होती है । यह सरकार के तीसरे अंग के रूप में एक पूर्ण स्वतंत्र एंव निष्पक्ष संस्था के रूप में रहकर अपने कार्यो का सम्पादन करती है ।
इस प्रकार भारतीय संविधान संघात्मक और एकात्मक के बीच
अर्द्धसंघीय संविधान है । जिसकी कल्पना डॉ. आम्बेडकर के द्वारा की गई है। भारतीय संविधान की यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि संघात्मक होते हुए भी उसमें केन्द्रीयकरण की सबल प्रवृत्ति है । आपात्कालीन परिस्थितियों में संविधान पूर्णतया एक एकात्मक संविधान का रूप धारण कर लेता है । यही नहीं, संविधान में कुछ ऐसे भी उपलबन्ध हैं जो शान्तिकाल में केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्ति प्रदान करते हैं ।
व्यक्ति के बौद्धिक नैतिक अध्यात्मिक विकास के लिए भारत के संविधान के मूल अधिकार की घोषणा अध्याय 3 में की गई है जो भारत का मेगनाकार्टा अधिकारो की घोषणापत्र कहा जाता है । इनका उदगम भारत में स्वंतत्रता के संघर्ष से स्वाधीनता के वृक्ष भारत में विकसित होने इस आशय के साथ इन्हें शामिल किया गया है । इसमें मानव अधिकारों के आधार भूत ढांचा को मान्यता प्रदान की गई है ।
आम्बेडकर के अनुसार, मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण विश्ेाषता यह है कि यह अधिकार न्यायोचित है। मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनुच्छेद-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार ही एक मौलिक अधिकार है ।अधिकारो का अस्तित्व उपचारो पर आधारित है । उपचारो के अभाव में अधिकार संभव नही है । यही कारण है कि डॉ.अम्बेडकर के द्वारा सवैधानिक उपचारो के अधिकार पर अधिक जोर दिया गया है ।
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार यदि उनसे पूछा जाये कि संविधान में कौन सा विशेष अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है जिसके बिना संविधान शून्य हो जाएगा तो वे इसके सिवाय किसी दूसरे अनुच्छेद का नाम नहीं लेंगे । यह संविधान की आत्मा है।
भारत के उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के अंतर्गत मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर रिट याचिका दायर की जा सकती है । जहां वरिष्ठ न्यायालय बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट जारी करके आम व्यक्ति को राहत प्रदान करते है ।
डॉ. आम्बेडकर को दृढ विश्वास था कि सरकार की संसदीय प्रणाली अकेले सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांत के माध्यम से एक समतावादी समाज में प्रवेश करा सकती है । डॉ. आम्बेडकर का मानना था कि सामाजिक लोकतंत्र के लिए राजीनतिक नैतिकता, ईमानदारी, अखंण्डता और मजबूत, अत्यधिक जिम्मेदार विपक्षी पार्टी होना आवश्यक है ।
हमारा देश सदियों से रूढी प्रथाओं, सामाजिक भेदभाव, असमान्ता के कारण सदियों से परतत्रं रहा है । इसलिए व्यक्ति को समता और समान अधिकार प्रदान किया गया है उसे विधि के समक्ष समता और समता का अधिकार दिया गया है । सभी नागरिकों के साथ विधि समानता का व्यवहार कर उन्हें समान संरक्षण प्रदान करती है ताकि उनका जन्म, मूल वंश, जाति, वर्ग, विशेष के आधार पर कोई भेद भाव नहीं करती है ।
डॉ. आम्बेडकर भारत में स्टेट सोशलिज्म की स्थापना करना चाहते थे इस संबंध में उन्होंने संविधान सभा के समक्ष अपने विचार रखते हुए कहा था कि ’’राजकीय समाजवाद भारत के तीव्र औद्योगीकरण के लिए अनिवार्य है । व्यक्तिगत उद्योग इसे नहीं कर सकते और यदि वे यह करेंगे, तो ये सम्पत्ति की वही असमानता विकसित करेंगे, जिसे यूरोप मे व्यक्तिगत पूंजीवाद ने विकसित किया है । इसे भारतीयोें को चेतावनी के रूप मे ग्रहण करना चाहिए । भूमि और लगान संबंधी कानून व्यर्थ से भी बुरे हैं । वे कृषि-क्षेत्र में संपत्तिशीलता नहीं ल सकते । न तो चकबंदी, न ही लगान कानून 6 करोड अछूतों की कोई सहायता कर सकेंगे, जो भूमि हीन मजदूर है । केवल सामूहिक कृषि उनकी सहायता कर सकती है । अपने विचारों को रखते हुए उन्होंने आगे कहा है कि जीवन बीमा योजना राज्य के एकाधिकार में होगी । कृषि राज्य उद्योग होगा । भूमि राज्य की होगी और उसका वितरण वर्ण जाति के भेद के बिना इस प्रकार होगा कि कोई भी लगानदाता और कोई भी भूमिहीन मजदूर नहीं रह जाएगा ।
बाबा अम्बेडकर के अपने जीवन काल में दलित वर्ग से संबंधित होने के कारण अनेक असमानताओं का सामना करना पडा था । इसके बावजूद भी उन्होने उच्चतम शिक्षा प्राप्त की और देश के संविधान निर्माण में महत्वूपर्ण भूमिका अदा की थी । इसी कारण संविधान में भारत के नागरिको के साथ वर्ग विभेद न हो उन्हें कार्य व्यापार, व्यवसाय, बोलने लिखने, की स्वतंत्रता धर्म, मूल वंश, लिंग, जाति, जन्म स्थान के आधार पर उनके साथ कोई विभेद न किया जाये । स्त्री और बच्चो का कोई शोषण न हो । कोई बाल विवाह, बहू विवाह, दहेज के प्रताडना से कोई प्रताडित न हो इसके लिए विशेष उपबंध संविधान में दिया गया है ।
सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबंधों संविधान में दिये गये है । अनुसूचित जाति जनजाति, पिछडे वर्ग के लिए जो सदियों से मुख्य धारा सेहटे हुए थे और सामाजिक दलित वर्ग के रूप के लिए जाने जाते थे उनके उत्थान के लिए विशेष प्रावधान बाबा अम्बेडकर के प्रयास से किये गये हैं । अस्पृश्ता का अंत किया गया था ।
स्वंतत्रता को जीवन मानते हुए वाक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभा संघ भ्रमण आवास की स्ंवतत्रता भारत के स्वतंत्र नागरिकोे को प्रदान की गई थी। लेकिन भारत की एकता और अखण्डता को बनाये रखने इन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया गया है । व्यक्ति को प्राण देहिक स्वतंत्रता प्रदान कर सर्व श्रेष्ठ मानव अधिकार प्रदान कर मानव को मानव होने का एहसास कराया गया है । ।
अवैध गिरफतारी निरोध से संरक्षण प्रदान किया गया है । शोषण के विरूद्ध मानव व्यापार, बलात्श्रम को प्रतिबंधित किया गया है और लोगो को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई । सांस्कृतिक शिक्षा संबधि अधिकार प्रदान किये गये है ।
भारत के संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक तत्व लोक हित कारी राज्य समाज वादी समाज की स्थापना हेतु शामिल किया गया है । कल्याणकारी राज्य के रूप में जनता के हित और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना राज्य का कर्तव्य माना गया है । डॉ.अम्बेडकर ने इन्हें संविधान अनोखी विशेषताए बताया है । इनमें कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य निहित है ।
डॉ. अम्बेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा में नीति-निदेशक तत्वों में अन्तर्निहित उददेश्यों के बारे में स्पष्टीकरण करते हुए निम्नलिखित विचार व्यक्त किया था--
’’....................हमारा संविधान संसदीय प्रजातंत्र की स्थापना करता है । संसदीय प्रजातंत्र से तात्पर्य है -एक व्यक्ति एक वोट । हमारा यह भी तात्पर्य है कि प्रत्येक सरकार अपने प्रतिदिन के कार्य-कलापों में तथा एक विषय के अंत में, जब कि मतदाताओ और निर्वाचक-मण्डल की सरकार द्वारा किये गये कार्यो का मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है, कसौटी पर कसी जायेगी । राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का उददेश्य यह है कि हम कुछ निश्चित लोगों को यह अवसर न दें कि वे निरंकशवाद को कायम रख सकें । जब हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है, तो हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक लोकतंत्र का आदर्श भी स्थापित करें ।
प्रश्न यह है कि क्या हमारे पास कोई निश्चित तरीका है जिससे हम आार्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर सकते हों? विभिन्न ऐसे तरीके है जिनमें लोगो का विश्वास है कि आर्थिक लोकतंत्र लाया जा सकता है । बहुत से लोग हैं जो व्यक्तिगत उत्कर्ष को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र समझते हैं, और बहुत से लोग समाजवादी समाज की स्थापना को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र मानते हैं । इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि आर्थिक लोकतंत्र लाने के विभिन्न तरीके हैं, हमने जो भाषा प्रयुक्त की है उमें जानबझकर नीति निदेशक तत्वों में ऐसी चीज रखी है जो निश्चित या अनम्य नहीं है । हमने इसलिए विविध तरीको र्से आिर्थक लोकतंत्र के आदर्श तक पहंुचने के लिए चिन्तनशील लोगो के लिए पर्याप्त स्थान छोडा है । इस संविधान की रचना में हमारे वस्तुतः दो उददेश्य है -1 राजनीतिक लोकतंत्र का रूप निर्धारित करना और 2- यह स्थापित करना कि हमारा आदर्श आर्थिक लोकतंत्र है और इसका भी विधान करना कि प्रत्येक सरकार जो भी सत्तामें हो आर्थिक लोक तंत्र लाने का प्रयास रेगी ।
इनके अथक प्रयासों के कारण ही इसी पवित्र संविधान के आधारपर यहां अनुसूचित जाति/जनजाति व अन्य पिछडे वर्गो के इन कमजोर तबके के लोगों को स्वाभिमान की जिन्दगी बसर करने के लिए विेशेष कानूनी सुविधाएं पहली बार नसीब हुई ।
भारत का संविधान समानता और न्याय के आदर्शो पर प्रतिष्ठित है। ऐसी समानता और न्याय की स्थापना का प्रयास राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में किया गया है । इसलिए संविधान धर्म, मूलवंश जाति या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्तियों के किसी वर्ग में भेदभाग का प्रतिषेध करता है । इस आदर्श की प्राप्ति के उद्देश्यों से ही इसने धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व या विधान मण्डलों या सरकारी नौकरियों के लिए पदों के आरक्षण की प्रथा को समाप्त कर दिया है ।
हमारे संविधान निर्माताओं ने उक्त आदर्शो को मूर्त रूप देने के लिए देश के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो के लिए समुचित उपबंध किया है, क्यों कि वे जानते थे कि जब तक इन वर्गो को प्रारंभ में सहायता न दी जायेगी, देश के विकास की गति अवरूद्ध हो जायेगी ।
प्रजातांत्रिक समानता के आदर्श केवल तभी साकार हा सकते है जब कि देश के समस्त वर्गो को एक स्तर पर लाया जाये । इसलिए हमारे संविधान में पिछडे वर्गो को देश के अन्य वर्गो के स्तर पर लाने के लिए कुछ अस्थायी प्रावधान है । और साथ ही साथ अल्पसंख्यक वर्गो के सांस्कृतिक या अन्य अधिकारों के संरक्षण के लिए कुछ अस्थायी प्रावधान की भी व्यवस्था है ताकि बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों पर अत्याचार न कर सकें ।
भारत का संविधान समानता ओर न्याय के आदर्शो पर प्रतिष्ठित है । ऐसे समानता और न्याय की स्थापना का प्रयास राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में किया गया है । इसलिए संविधान धर्म, मूलवंश जाति या जन्मस्थान के आधारपर व्यक्तियों के किसी वर्ग में भेदभाव का प्रतिषेध करता है ं इस आदर्श कीप्रा्िरप्त के उददेश्यों से ही इसने धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व या विधानमण्डलों या सरकारी नौकरियों के लिए पदो के आरक्षण की प्रथा को समाप्त कर दिया है ।
हमारे संविधान निर्मातओं ने उक्त आदर्शो को मूर्त रूप देने के लिए देश के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो के लिए समुचित उपबंध किया है क्यों कि वे जानते थे कि जब तक इन वर्गाे को प्रारंभ में सहायता न दी जायेगी देश के विकास की गति अवरूद्ध हो जायेगी ं प्रजातांत्रिक समानता के आदर्श केवल तभी साकार हो सकते हें जब कि देश के समस्त वर्गो को एक स्तर पर लाया जाये।ं इसलिए हमारे संविधान में पिछडे वर्गो को देशके अय वर्गो के स्तर परलाने के लिए कुछ अस्थायीप्रावधान है और साथ ही साथ अल्पसंख्यक वर्गो के सांस्कृतिक याअन्य अधिकारों के संरक्षण के लिए कुछ अस्थायी प्रावधान की भी व्यवस्था है ताकि बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यों र अत्याचार न कर सकें ।
संविधान में राज्य को जनता के दुर्बलतर और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकारके शोषण से उनका संरक्षण करने का निर्देश दिया गया है ।
संविधान के भाग 3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षणके लिए अनेक उपबंध है । भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समताा और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी प्रदान की गई है। धर्म, मूलवंश, जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध किया गया है ।
संविधान में राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडे हुए वर्गो या अनुसूचति जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबंध करने कहा गया है । संविधान बाबा अम्बेडकर के प्रयासों से सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी प्रदान करता है और इसके संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति लिंग, उदभव, जन्मस्थान, निवास के आधार पर भेद भाव को वर्जित करता है । राज्य उक्त वर्गो के व्यक्तियों के लिए यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है ।
संविधान में भारतीय समाज का एक महान कलंक अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है।ं अनुसूचित आदिम जातियों के हितों की संरक्षा के लिए मूल अधिकारों पर निर्बधन भी लगाया गया है ।
संविधान मेें अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के लिए उपबंध किया गया है । भारत में रहने वाले नागरिकों के किसी वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रख्ने का अधिकार प्रदान किया गया है । सभी अल्पसंख्यक वर्गो को चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हो, अपनी रूचि को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना का अधिकार दिया गया है । शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरूद्ध इस आधार पर विभेद न करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है ।
संविधान अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण हेतु राज्यों को केन्द्रीय सहायक अनुदान का उपबंध करता है । संविधान में निर्वाचन हेतु एक साधारण निर्वाचक नामावली रखी गई है जिसमें केवल धर्म, मूलवंश, जाति लिंग के आधार पर कोई व्यक्ति किसी ऐसी नामावली में सम्मिलित किये जाने के लिए अपात्र नहीं होगा। संविधान में उडीसा, बिहार और मध्य प्रदेश राज्यों में आदिम अनुसूचित जातियों के कलयाण के लिए एक विशेष मंत्री का उपबंध किया गया है । अनुसूचित जातियों अनुसूचित आदिम जातियां , ऐंग्लो इंडियन्स और पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबंध किये गये है ं। भाषायी अल्पसंख्यकों के संरक्षण की व्यवस्था की गई हैं ।
आम्बेडकर के द्वारा तैयार किए गए संविधान को ‘‘सबसे पहला सामाजिक दस्तावेज’’ कहा गया है । भारत के संवैधानिक प्रावधानों या तो सीधे सामाजिक क्रांति या अपनी उपलब्धि के लिए अवश्यक शर्तो की स्थापना से इस क्रांति के उददेश्य को आगे बढाने का प्रायस करते हैं ।
आम्बेडकर महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारांे के लिए तर्क दिए है और यह भी सिविल सेवाओं, स्कूल और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए कालेजों, एक प्रणाली में नौकरियों के लिए आरक्षण एक सकारात्मक कार्यवाई करने के लिए समान प्रणाली शुरू करने के लिए विधान सभा का समर्थन जीता ।
भारतीय संविधान को तैयार करने में लाभदायक भूमिका के कारण डॉ. भीमराव आम्बेडकर लोकप्रिय हैं । भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में पूरे भारत में जाना जाता है । उनके द्वारा सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के प्रयास उल्लेखनीय थे और यही वजह है कि वह दलितों का मसीहा कहा जाता है । संंिवधान मसौदा मे डॉ.भीमराव आम्बेडकर समिति के अध्यक्ष नियुक्त किए गये थे ।
आम्बेडकर ने संविधान के खंडो को लचीला रखा है । ताकि उमें समयानुसार संशोधन किया जा सकते । उन्होने संविधान में एक प्रेरणादायक प्रस्तावना प्रदान की है । सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे को सुनिश्चित करती है । आजतक एक समतावादी समाजिक व्यवस्था का निर्माण इच्छाधारी सोच बनी हुई है ।
डॉ. आम्बेडकर न केवल एक विद्वान और एक प्रख्यात विधिक्ता थे लेकिन वह एक क्रांतिकारी भी थे । जिन्होंने अस्पृश्यता और जाति प्रतिबध्ंा जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लडाई की थी । अपने पूरे जीवन में उन्होंने सामाजिक भेदभाव, दलितों और अन्रू सामाजिक रूप से पिछडे वर्गो के अधिकारों को कायम रखने की लडाई की है । वह न केवल एक महान राष्ट्ीय नेता थे, लेकिन वह अंतर्राष्ट्ीय ख्याति प्राप्त एक प्रतिष्ठित व्यकित् भी थे ।
उन्होंने भारतीय समाज के पिछडे वर्गो के उत्थान के लिए न केवल आंदोलतन किए हैं लेकिन अपने जाति, धर्म, संस्कृति , संवैधानिक कानून और आर्थिक विकास पर अपने कार्यो के माध्यम से भारत मंे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को समझाने में योगदान दिया है । वह देश के पहले कानून मंत्री के रूप में नियुक्त हुए और 1950 में उन्हें भारत रतन से सम्मानित किया गया।
डॉ. आम्बेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माण में एक मौलिक भूमिका निभाई है । उन्होंने संविधान का मसौदा तेयार करने के लिए अपने ज्ञान और अनुभव का इस्तेमाल किया । मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में अपनी क्षमता के अनुसार उन्होंने एक व्यापक व्यवहारिक संविधान का निर्माण किया जिसमे उन्होंने अपने बहु मूल्य विचार शामिल किए । उन्होंने स्वंतत्र भारत को अपना कानूनी ढांचा और लोगो को अपनी स्वतंत्रता का आधार दिया । उन्होंने संविधान मे सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित किया ।
आम्बेडकर ने संविधान में धर्म की स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का उन्मूलन और भेदभाव के सभी रूपों को मिटाने के साथ व्यक्तिगत नागरिकों के लिए एक नागरिक स्वतंत्रताओ की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है । आम्बेडकर ने महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक अधिकारों के उत्थान के लिए भी कहा है ।
भारत का संविधान देश की सर्वोच्च विधि है और यह सभी विधियों का आधार और स्त्रोत है । इसलिए संविधान में धारा का उल्लेख न करके अनुच्छेद का उल्लेख किया गया है । कोई भी विधि संविधान के उपबंधों का अतिलंघन, अति क्रमण, उल्लंघन करने की दशा में असंवैधानिक मानी जाती है ।
भारत के संविधान में जहां मूल अधिकार उसकी आत्मा है, नीति निर्देशक तत्व उसका शरीर है, संवैधानिक उपचारो का अधिकार उसे प्राण वायु प्रदान कर एक जीवन्त शरीर का रूप प्रदान कर बाबा आम्बेडकर के सपनो के देव तुल्य पुरूष के रूप में संविधान को प्रस्तुत करता है ।
डॉ0 बी.आर. आम्बेडकर का योगदान
सर्व प्रथम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण कार्य एक ऐसे सार्वभौमिक कानून की रचना करना था । जिसके माध्यम से उन उददेश्यों को प्राप्त कर सके जिसके लिए हमने आजादी की लडाई लडी थी और लाखो लोगो की कुरबानी देकर स्वतंत्रता प्राप्त की थी । हमारा देश छोटी-छोटी रियासतो में बटंा हुआ था । स्वतंत्रता के बाद सभी राजा, महाराज, रियासत स्वतंत्र हो गई, और उन्हें एकत्र करना महत्वपूर्ण उद्देश्य था। इसके लिए देश में एक संगठित कानून होना आवश्यक था । जिसके लिए देश मंे सर्वोच्च कानून संविधान की संरचना की गई है ।
भारत मंे एक विशाल देश है, जिसमें कई धर्म, भाषा, समुदाय के लोग रहते है । एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्र से भिन्न है । यहां हर पांच कोस पर जाति, भाषा, धर्म, वेशभूषा, वाणी बदल जाती है । यहां पर गरीबी, बेकारी, भुखमरी, है तो दूसरी और अमीरी और प्राकृतिक संसाधनो की भरमार है । जिनका उचित दोहन नही हो रहा है । अमीरो और गरीबो के बीच खाई है । इन सबके बीच तालमेल बैठाने के लिये एक संविधान की रचना आवश्यक थी ।
भारत सदियों से गुलाम रहा है और जिसका मुख्य कारण विदेशी आक्रमण रहा ,जो भारत में एक केन्द्रीय शक्ति के अभाव को दर्शाता है । इसलिये भारत में एक ऐसे संबिधान की आवश्यकता थी जिसमें केन्द प्रधान व अधिक शक्तिशाली हो। इसके लिए भी एक लचीले संविधान की आवश्यकता थी ।
आजादी की लड़ाई में लोगो ने लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की थी । इसलिये भारत मेंएक धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक, गणराज्य बनाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। संविधान निर्माण के लिए सर्व प्रथम कैबिनेट-योजना के अंतर्गत नवम्बर 1946 को संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव किया गया । कुल 296 सदस्य चुने गये, जिसमें से 211 सदस्य कांग्रेस के, 73 मुस्लिम लीग के तथा शेष स्थान खाली रहे । बाद में मुस्लिम लीग के द्वारा बहिष्कार किया गया ।
संविधान सभा के प्रमुख सदस्यों में जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, डॉ. आम्बेडकर, मौलाना आजाद, गोपाल स्वामी आयंगर, गोविन्द बल्लभ पन्त, अब्दुल गफफार खां, टी.टी.कृष्णामाचारी, अल्लादी कृष्णास्वामी अययर, हृदयनाथ कंुजरू, सर एच.एस. गौड़, के.टी.शाह, मसानी, आचार्य कृपालानी आदि शामिल थे ।
संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई तो उसके सामने केबिनेट योजना के द्वारा लगाई गई अनेक पाबंदिया थी । जो अगस्त 1947 में स्वतंत्रता अधिनियम पारित होने के बाद से समाप्त हो गई। इसके बाद संविधान सभा एक सम्प्रभुनिकाय बन गयी और वह भारत के लिए जैसा भी चाहे संविधान बना सकती थी ।
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद चुने गये । प्रारूप समिति का काम विधिवेत्ता, राजनीतिक नेता, दार्शनिक, मानवविज्ञानी, इतिहासकार, वक्ता, अर्थशास्त्री, शिक्षक और सम्पादक, एम.ए., पी.एच.डी, कोलम्बिया विश्वविद्यालय डी.एस.सी. लन्दन, एल.एल.डी कोलम्बिया वि.वि. डी.लिट उस्मानिया वि.वि., बार एट लॉ लन्दन, डॉ. भीम राव आम्बेडकर को सौंपा गया ।
संविधान के प्रारूप पर 8 महीने बहस हुई और इस दौरान उसमें भी अनेक संशोधन किये गये । संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुए । इस प्रकार संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन के अथक और निरंतर परिश्रम के पश्चात 26 नवम्बर 1949 तक संविधान के निर्माण का कार्य पूरा किया । संविधान के कुछ उपबंधों तो उसी दिन लागू हो गये शेष उपबंध 26 जनवरी 1950 को प्रवृत हुए जिसे संविधान के प्रवर्तन की तारीख कहा जाता है।
डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर ने संविधान निर्माण मे अमूल्य योगदान दिया है और यही कारण है कि उन्हें भारत के संविधान का वास्तुकार, निर्माणकर्ता विश्वकर्मा, शिल्पकार कहा जाता है । भारत का संविधान उनकी अमर कृति मानी जाती है। बाबा आम्बेडकर ने अपने जीवनकाल में अनेक पुस्तके लिखी है परन्तु उन्हे दुनिया भारत के संविधान के निर्माता के रूप में ही जानती-पहचानती हैं । जिसके लिए उन्हे डी लिट की उपाधी भी प्रदान की गई है ।
दलित वर्ग से संबंधित होने के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त बाबा आम्बेडकर ने दलितो के कल्याण के लिए संविधान में अनेक प्रावधानों की वकालत की है तथा संविधान के उददेशिका से ही उसके प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को -सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट् की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होने वाली बात बलवती होती है ।
बहुजन हिताए बहुजन सुखाए तथा अपनी रक्षा स्वयं करो की भारतीय अवधारणा को संविधान का आधारभूत लक्ष्य बनाया गया है । सामाजिक न्याय को बल प्रदान किया गया है । व्यक्ति को पद और अवसर की सामानता प्रदान की गई है। राज्य का कोई धर्म नहीं होगा इसके लिए धर्मनिर्पेक्षता रखी गई है । प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने की स्वतंत्रता दी गई है ।
बाबा ऑम्बेडकर का उददेश्य था कि भारत के संविधान में समानता , और न्याय के आदर्शो की स्थापना, राजनैनिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हो, इसके लिए संविधान में धर्म, मूलवंश, जाति ,जन्म स्थान के आधार पर व्यक्तियों में, वर्ग,ं विभेद का प्रतिषेध किया गया है । इसके लिए धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व या विधानमण्डलों या सरकारी नौकरियों मंे पदो के लिए देश के समाजिक और आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो के लिए समुचित उपबंध किया है।
प्रजातांत्रिक समानता के आदर्श केवल तभी साकार हो सकते है जब कि देश के समस्त वर्गो को एक स्तर पर लाया जाये । इसलिए हमारे संविधान में पिछडे वर्गो को देश के अन्य वर्गो के स्तर पर लाने के लिए कुछ अस्थाई प्रावधान रखे गये । जिसमें बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों पर अत्याचार न कर सकें । संविधान राज्य को जनता के दुर्बलतर और विशेषतया अनुसूचित जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
डॉ. आम्बेडकर के द्वारा भारत के संविधान में भारत के प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य को राज्यों का संघ घोषित किया गया है । विभाजन के पश्चात सुदृढ केन्द्रयुक्त परिसंघ की स्थापना का उददेश्य राजनीतिक एंव प्रशासनिक दोनो ही रहा है । इसके बाद भी संविधान को पूर्णरूपेण परिसंघात्मक नहीं बनाया गया है।
संविधान सभा के अनुसार संघ को परिसंघ कहना आवश्यक नहीं था । संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए प्ररूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आम्बेडकर ने कहा था कि यद्यपि यह संविधान संरचना की दृष्टि से फेडरल हो सकता है, किन्तु कुछ निश्चित उददेश्यों से समिति ने इसे संघ कहा है । इसके मुख्य दो उददेश्य हैं-
े पहला-अमेरिकी संघवाद की भांति भारत का संघवाद संघ की इकाइयों के बीच परस्पर करार का परिणाम नहीं है ।
दूसरा-राज्यों को स्वेच्छानुसार परिसंघ से पृथक होने का अधिकार नहीं दिया गया है ।
डॉ. आम्बेडकर ने संघ शब्द का आशय इस प्रकार व्यक्त किया है-यद्यपि भारत को एक फेडरेशन से पृथक होने का अधिकार ही दिया गया है । फेडरेशन एक संघ है क्यों कि यह कभी समाप्त नहीं होगा । यद्यपि प्रशासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण देश और इसके निवासी एक ही स्त्रोत से उदभूत सर्वोच्च शक्ति के अधीन रहने वाले व्यक्ति है । राज्यों को इस संघ से पृथक होने का कोई अधिकार नहीं है । संघ का नाम इण्डिया अथवा भारत है । प्रथम अनुसूची में विनिर्दिष्ट इसके सदस्यों को राज्य कहा जाता है ।
संविधान में सरकार के रूप की व्याख्या करते हुए । डॉ.आम्बेडकर ने कहा था कि अमेरिका में राष्ट्पति प्रणाली की सरकार है जहां राष्ट्पति प्रमुख कार्यकारी होता है। मसौदा संविधान के तहत राष्ट्पति अंग्रेजी संविधान के राजा के तरह होता है । वह राज्य का प्रमुख हेाता है । परन्तु कार्यापालिका का नहीं ।वह देश का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन शासन नहीं करता है ।
डॉ.आम्बेडकर का कहना था कि ‘‘ अमेरिकी कार्यकारी एक गैर संसदीय कार्यकारी हैं जो अपने अस्तित्व के लिए कांग्रेज में बहुमत पर निर्भर नहीं है। जब कि ब्रिटिश प्रणाली एक संसदीय है जहां कार्यकारी अधिकारी, संसद में बहुमत पर निर्भर करता है ।’’
एक गैर संसदीय कार्यकारी होने के नाते, संयुक्त राज्य अमेरिका में कांग्रेस कार्यकारी को त्याग नहीं देते हैं । कार्यकारी विधायिका के लिए कम जिम्मेदार होता है । जबकि संसदीय कार्यकारी में अधिक जिम्मेदार होता है । संविधान का मसौदा अधिक जिम्मेदारी पंसद करते हैं ।
संविधान का मसौदा के अन्य सुविधाओं इंगित करते हुए आम्बेडकर ने कहा ’’ एक दोहरी राजनीति होते हुए संविधान के मसौदा में एक एकल नागरिकता है । एक एकीकृत न्यायपालिका है’’ जो संवैधानिक कानून नागरिक कानून, और आपराधिक कानून के तहत होने वाले सभी मामलो में उपचार प्रदान करती हैं और एक आम अखिल भारतीय सिविल सेवा है । जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के तहत यहंा दोहरी नागरिकता है । एक संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए और राज्यों के लिए वहां एक संघीय न्यायपालिका है और एक राज्य न्यायपालिका और वहां भी एक संघीय सिविल सेवा और राज्य सिविल सेवा है ।
रिपब्लिकन फार्म की सरकार के रख रखाव के लिए आम्बेडकर ने कहा है ’’ संयुक्त राज्य अमेरिका में हर राज्य को अपना संविधान बनाने की स्वतंत्रता है जबकि भारतीय संघ और भारत के राज्यों का एक ही संविधान है जिसमें से बाहर नही निकला जा सकता हैं और उसके भीतर ही सारे कार्य हो सकते हैं ।
कठोरता के संबंध में आम्बेडकर ने कहा कि सामान्य समय में संसद के पास शक्ति हैं कि वह विश्ेाष रूप से प्रांतीय विषयों पर कानून बना सकता है और यह सुविधा भी है कि वह संविधान में संशोधन भी कर सकता है । तो इसकी खास विशेषता यह है कि यह एक लचीला फ्रेडरेशन है ।
डॉ. आम्बेडकर का कहना था कि ’’मुझे लगता है कि हमारा संविधान व्यवहारिक है, यह लचीला है, और इतना मजबूत है कि शांति के समय युद्ध के समय देश को एक साथ रखता है । दरअसल अगर नए संविधान मे चीजें गलत हो जाए तो इसका कारण यह नहीं है कि हमारे पास एक बुरा संविधान था ।
प्रारूप समिति का अध्यक्ष होने के नाते आम्बेडकर ने संविधान सभा में कई विकट अंक और कानून का ब्यौरा दिया था । केन्द्र की शक्तियों के बारे में उन्होंने चेतावनी दी है कि केन्द्र की ताकत उसके वजन के अनुरूप होनी चाहिए ।यह मूर्खता होगी उसको इतना मजबूत बनाना कि वह अपने वजन के कारण गिर जाए ।
भारतीय संघ के अध्यक्ष की शक्तियों के संबंध में उन्होंने कहा ’’भारतीय संघ के अध्यक्ष आम तौर पर अपने मंत्रियों की सलाह से बाध्य होता है । वह उनकी सलाह के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता और न ही उनकी सलाह के बिना राष्ट्पति विवेकाधीन कार्य नहीं कर सकता । परन्तु उसके पास कुछ विशेषाधिकार होते हैं ।
भारत का संविधान संघात्मक है । जिसमें सत्ता संसद में नीहित होती है और संसद जनता के प्रति उत्तरदायी होती है । डॉ. अम्बेडकर ने सर्वप्रथम सरकार के संबंध में मत व्यक्त किया था कि भारत में अमेरिका की राष्ट्पति प्रणाली होना चाहिए । जिसमें राष्ट्पति कार्यपालन में प्रधान होती है और ब्रिटेन में राजा की तरह होता है । किन्तु वह कार्यपालिका का प्रमुख नहीं होता है । वह राष्ट् का प्रतिनिधि होता है जो शासन नहीं करता है । अमेरिका का राष्ट्पति जनता के प्रति उत्तदायी नहीं होता है । जबकि ब्रिटेन में जनता के प्रति उत्तरदायी होता है ।
जबकि हमारे भारत में इसके बीच की व्यवस्था रखी गई है और कार्यपालिका को विधायिका प्रति उत्तरदायी बनाया गया है ।विधायिका को संसद के प्रति उत्तदायी बनाया गया है । संसद जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि के प्रति उत्तदायी होती है ।
इस प्रकार जनता के प्रति राष्ट् उत्तरदायी होता है । इस व्यवस्था के कारण राष्ट् युद्ध बाहरी आक्रमण के समय एक हो जाता है और शांति व्यवस्था के समय राज्य में चुनी गई सरकारे अपना अपना कार्य करती है और जनता के प्रति उत्तरदायी होती है । इससे देश की एकता और अखण्डता बनी रहती है ।
हमारे यहां डॉ. अम्बेडकर के अनुसार एकल नागरिकता है, जिसका मुख्य उददेश्य आम जनता का अखिल भारतीय सेवा में चुना जाना है । इसी प्रकार एकीकृत न्यायव्यवस्था है,ं जिसमें उच्चतम न्यायालय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है।
संविधान को संघात्मक दर्जा प्रदान करने के लिए संघ और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है । केन्द्र और राज्य के बीच विवाद होने पर हल निकालने का कार्य उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा जाता है। इसके साथ ही साथ यह उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों, अल्प संख्कों के अधिकारों का भी ध्यान में रखता है । इसलिए इसे सामाजिक क्रांति के संरक्षक के रूप में जाना जाता है।
केन्द्र की तरह राज्य में भी प्रशासन संघात्मक है । राज्य कार्यपालिका का प्रधान राज्यपाल होता है, जो मंत्री परिषद की सलाह से कार्य करता है । विधान मण्डल विधानसभा राज्यपाल से मिलकर बनती है । संसद सदस्यों को संसदीय विशेषाधिकार प्रदान किये गये है। जिसमें बोलने एंव भाषण की स्वतंत्रता दी गई है ताकि वे दबाव से मुक्त होकर कार्य करे इसके लिए संवैधानिक संरक्षण प्रदान किये गये है ।
भारत मंे संसदीय सरकार है । जिसमें राष्ट्पति संवैधानिक प्रमुख होता है लेकिन सम्पूर्ण शक्ति मंत्रीमण्डल में निहित होती है, जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होता है । मंत्री परिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है । मंत्री परिषद के सदस्य जनता के चुने प्रतिनिधि होते हैं । कार्यपालिका को लोकसभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है । विधायक तथा कार्यपालिका मनमानी कार्य न करें इसके लिए न्यायपालिका को शक्ति प्रदान की गई है ।
भारत के संविधान में संघात्मक संविधान की सभी विशेषताएं मौजूद हैं। भारत के संविधान में शक्तियों का विभाजन, संविधान की सर्वोपरिता, लिखित संविधान, संविधान की अपरिवर्तन शीलता, न्यायपालिका का प्राधिकार जैसे महत्वपूर्ण तत्व विद्धमान है ।
संघात्मक संविधान का केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियेां का विभाजन के आवश्यक तत्व है । यह विभाजन संविधान के द्वारा ही किया जाता है । प्रत्येक सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में प्रमुख होती है और दूसरे के अधिकारों एंव शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं करती । इस प्रकार से संघवाद में राज्य की शक्तियों का अनेक सहयोगी संस्थाओं में विकेन्द्रीकरण होता है ।
संविधान सरकार के सभी अंगो-कार्यपालिका, विधायिका और न्याय पालिका का स्त्रोत होता है । उनके स्वरूप, संगठन और शक्तियों से संबधित सभी उपबंध संविधान ही में निहित होते हैं । संविधान उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है जिनके भीतर वे कार्य करते हैं । सभी संस्थाएं संविधान के अधीन ेऔर उसके नियंत्रण में कार्य करती है ।
संघीय व्यवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है और उसके सुचारू रूप से कार्य करने के लिए संविधान उसका लिखित होना आवश्यक है । केन्द्रीय एंव प्रान्तीय विधानमंडलों की विधायी शक्ति का स्त्रोत संविधान ही है और उनके द्वारा बनाई गई विधियां संविधान के अधीन होती है । संविधान के उपंबंधों के विरूद्ध होने पर न्यायालय उन्हें अवेध घोषित कर सकता है । इसी प्रकार उन्हंे संविधान द्वारा प्रदत्त अपने सभी अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही करना होता है ।
भारतीय संविधान की प्रकृति के बारे में विधिशास्त्रियों में काफी मतभेद रहा है । संविधान निर्माताओं के अनुसार भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि मेरे इसविचार से सभी सहमत है कि यद्यपि हमारे संविधान में ऐसे उपबंधों का समावेश है जो केन्द्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देते हैं जिनमें प्रान्तों की स्वतंत्रता समाप्त सी हो जाती है । फिर भी वह संघात्मक संविधान है ं
संविधान की परिवर्तनशीलता आवश्यक है । लिखित संविधान स्वभावतः अनम्य होता है । संविधान की नम्यता और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है । जिस संविधान में संशोधन सरलता से किए जा सकते हेैें उसे नम्य संविधान कहा जाता है । जिस संविधान में संशोधन विशेष प्रक्रिया के अनुसार की जा सकते हैं जो कठिन प्रक्रिया होती है । वे अनम्य संविधान होता है ।
इस संबंध में पंडित जवाहर लाल नेहरू का कहना है कि हालंाकि हम इस संविधान को इतना ठोस और स्थायी बनाना चाहते हैं जितना कि हम बना सकते हैं, फिर भी संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है । इसमें कुछ सीमा तक परिवर्तनशीलता होनी ही चाहिए । यदि आप किसी वस्तु को अपरिवर्तनशील और स्थायी बना देंगे तो आप राष्ट् की प्रगति रोक देंगे और इस प्रकार आप एक जीवित और संगठित राष्ट् की प्रगति को भी रोक देंगे- किसी भी अवस्था में हम इस संविधान को इतना अनम्य नहीं बना सकते थे कि यह बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित न हो सके । जब कि दुनिया एक संक्रान्तिकाल में है और हम परिवर्तन की अत्यन्त ही तीव्र गति के युग से गुजर रहे हैं, तब सम्भव है कि हम आज जो कुछ कह रहे हैं, कल वहीं पूरी तरह से लागू न हो सके ।’’
संविधान के उपबंधों का सही सही निर्वचन करने के लिए ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है जो स्वतंत्र एंव निष्पक्ष हो । संघीय संविधान में यह कार्य न्यायपालिका को सौंपा गया है । संविधान के उपबंधों के निर्वचन के संबंध में अंतिम निर्णय देने का प्राधिकार न्यायपालिका को ही प्राप्त हे । यह संस्था किसी भी सरकार के अधीन नही होती है । यह सरकार के तीसरे अंग के रूप में एक पूर्ण स्वतंत्र एंव निष्पक्ष संस्था के रूप में रहकर अपने कार्यो का सम्पादन करती है ।
इस प्रकार भारतीय संविधान संघात्मक और एकात्मक के बीच
अर्द्धसंघीय संविधान है । जिसकी कल्पना डॉ. आम्बेडकर के द्वारा की गई है। भारतीय संविधान की यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि संघात्मक होते हुए भी उसमें केन्द्रीयकरण की सबल प्रवृत्ति है । आपात्कालीन परिस्थितियों में संविधान पूर्णतया एक एकात्मक संविधान का रूप धारण कर लेता है । यही नहीं, संविधान में कुछ ऐसे भी उपलबन्ध हैं जो शान्तिकाल में केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्ति प्रदान करते हैं ।
व्यक्ति के बौद्धिक नैतिक अध्यात्मिक विकास के लिए भारत के संविधान के मूल अधिकार की घोषणा अध्याय 3 में की गई है जो भारत का मेगनाकार्टा अधिकारो की घोषणापत्र कहा जाता है । इनका उदगम भारत में स्वंतत्रता के संघर्ष से स्वाधीनता के वृक्ष भारत में विकसित होने इस आशय के साथ इन्हें शामिल किया गया है । इसमें मानव अधिकारों के आधार भूत ढांचा को मान्यता प्रदान की गई है ।
आम्बेडकर के अनुसार, मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण विश्ेाषता यह है कि यह अधिकार न्यायोचित है। मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनुच्छेद-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार ही एक मौलिक अधिकार है ।अधिकारो का अस्तित्व उपचारो पर आधारित है । उपचारो के अभाव में अधिकार संभव नही है । यही कारण है कि डॉ.अम्बेडकर के द्वारा सवैधानिक उपचारो के अधिकार पर अधिक जोर दिया गया है ।
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार यदि उनसे पूछा जाये कि संविधान में कौन सा विशेष अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है जिसके बिना संविधान शून्य हो जाएगा तो वे इसके सिवाय किसी दूसरे अनुच्छेद का नाम नहीं लेंगे । यह संविधान की आत्मा है।
भारत के उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के अंतर्गत मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर रिट याचिका दायर की जा सकती है । जहां वरिष्ठ न्यायालय बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट जारी करके आम व्यक्ति को राहत प्रदान करते है ।
डॉ. आम्बेडकर को दृढ विश्वास था कि सरकार की संसदीय प्रणाली अकेले सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांत के माध्यम से एक समतावादी समाज में प्रवेश करा सकती है । डॉ. आम्बेडकर का मानना था कि सामाजिक लोकतंत्र के लिए राजीनतिक नैतिकता, ईमानदारी, अखंण्डता और मजबूत, अत्यधिक जिम्मेदार विपक्षी पार्टी होना आवश्यक है ।
हमारा देश सदियों से रूढी प्रथाओं, सामाजिक भेदभाव, असमान्ता के कारण सदियों से परतत्रं रहा है । इसलिए व्यक्ति को समता और समान अधिकार प्रदान किया गया है उसे विधि के समक्ष समता और समता का अधिकार दिया गया है । सभी नागरिकों के साथ विधि समानता का व्यवहार कर उन्हें समान संरक्षण प्रदान करती है ताकि उनका जन्म, मूल वंश, जाति, वर्ग, विशेष के आधार पर कोई भेद भाव नहीं करती है ।
डॉ. आम्बेडकर भारत में स्टेट सोशलिज्म की स्थापना करना चाहते थे इस संबंध में उन्होंने संविधान सभा के समक्ष अपने विचार रखते हुए कहा था कि ’’राजकीय समाजवाद भारत के तीव्र औद्योगीकरण के लिए अनिवार्य है । व्यक्तिगत उद्योग इसे नहीं कर सकते और यदि वे यह करेंगे, तो ये सम्पत्ति की वही असमानता विकसित करेंगे, जिसे यूरोप मे व्यक्तिगत पूंजीवाद ने विकसित किया है । इसे भारतीयोें को चेतावनी के रूप मे ग्रहण करना चाहिए । भूमि और लगान संबंधी कानून व्यर्थ से भी बुरे हैं । वे कृषि-क्षेत्र में संपत्तिशीलता नहीं ल सकते । न तो चकबंदी, न ही लगान कानून 6 करोड अछूतों की कोई सहायता कर सकेंगे, जो भूमि हीन मजदूर है । केवल सामूहिक कृषि उनकी सहायता कर सकती है । अपने विचारों को रखते हुए उन्होंने आगे कहा है कि जीवन बीमा योजना राज्य के एकाधिकार में होगी । कृषि राज्य उद्योग होगा । भूमि राज्य की होगी और उसका वितरण वर्ण जाति के भेद के बिना इस प्रकार होगा कि कोई भी लगानदाता और कोई भी भूमिहीन मजदूर नहीं रह जाएगा ।
बाबा अम्बेडकर के अपने जीवन काल में दलित वर्ग से संबंधित होने के कारण अनेक असमानताओं का सामना करना पडा था । इसके बावजूद भी उन्होने उच्चतम शिक्षा प्राप्त की और देश के संविधान निर्माण में महत्वूपर्ण भूमिका अदा की थी । इसी कारण संविधान में भारत के नागरिको के साथ वर्ग विभेद न हो उन्हें कार्य व्यापार, व्यवसाय, बोलने लिखने, की स्वतंत्रता धर्म, मूल वंश, लिंग, जाति, जन्म स्थान के आधार पर उनके साथ कोई विभेद न किया जाये । स्त्री और बच्चो का कोई शोषण न हो । कोई बाल विवाह, बहू विवाह, दहेज के प्रताडना से कोई प्रताडित न हो इसके लिए विशेष उपबंध संविधान में दिया गया है ।
सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबंधों संविधान में दिये गये है । अनुसूचित जाति जनजाति, पिछडे वर्ग के लिए जो सदियों से मुख्य धारा सेहटे हुए थे और सामाजिक दलित वर्ग के रूप के लिए जाने जाते थे उनके उत्थान के लिए विशेष प्रावधान बाबा अम्बेडकर के प्रयास से किये गये हैं । अस्पृश्ता का अंत किया गया था ।
स्वंतत्रता को जीवन मानते हुए वाक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभा संघ भ्रमण आवास की स्ंवतत्रता भारत के स्वतंत्र नागरिकोे को प्रदान की गई थी। लेकिन भारत की एकता और अखण्डता को बनाये रखने इन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाया गया है । व्यक्ति को प्राण देहिक स्वतंत्रता प्रदान कर सर्व श्रेष्ठ मानव अधिकार प्रदान कर मानव को मानव होने का एहसास कराया गया है । ।
अवैध गिरफतारी निरोध से संरक्षण प्रदान किया गया है । शोषण के विरूद्ध मानव व्यापार, बलात्श्रम को प्रतिबंधित किया गया है और लोगो को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई । सांस्कृतिक शिक्षा संबधि अधिकार प्रदान किये गये है ।
भारत के संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक तत्व लोक हित कारी राज्य समाज वादी समाज की स्थापना हेतु शामिल किया गया है । कल्याणकारी राज्य के रूप में जनता के हित और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना राज्य का कर्तव्य माना गया है । डॉ.अम्बेडकर ने इन्हें संविधान अनोखी विशेषताए बताया है । इनमें कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य निहित है ।
डॉ. अम्बेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा में नीति-निदेशक तत्वों में अन्तर्निहित उददेश्यों के बारे में स्पष्टीकरण करते हुए निम्नलिखित विचार व्यक्त किया था--
’’....................हमारा संविधान संसदीय प्रजातंत्र की स्थापना करता है । संसदीय प्रजातंत्र से तात्पर्य है -एक व्यक्ति एक वोट । हमारा यह भी तात्पर्य है कि प्रत्येक सरकार अपने प्रतिदिन के कार्य-कलापों में तथा एक विषय के अंत में, जब कि मतदाताओ और निर्वाचक-मण्डल की सरकार द्वारा किये गये कार्यो का मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है, कसौटी पर कसी जायेगी । राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का उददेश्य यह है कि हम कुछ निश्चित लोगों को यह अवसर न दें कि वे निरंकशवाद को कायम रख सकें । जब हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है, तो हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक लोकतंत्र का आदर्श भी स्थापित करें ।
प्रश्न यह है कि क्या हमारे पास कोई निश्चित तरीका है जिससे हम आार्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर सकते हों? विभिन्न ऐसे तरीके है जिनमें लोगो का विश्वास है कि आर्थिक लोकतंत्र लाया जा सकता है । बहुत से लोग हैं जो व्यक्तिगत उत्कर्ष को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र समझते हैं, और बहुत से लोग समाजवादी समाज की स्थापना को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र मानते हैं । इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि आर्थिक लोकतंत्र लाने के विभिन्न तरीके हैं, हमने जो भाषा प्रयुक्त की है उमें जानबझकर नीति निदेशक तत्वों में ऐसी चीज रखी है जो निश्चित या अनम्य नहीं है । हमने इसलिए विविध तरीको र्से आिर्थक लोकतंत्र के आदर्श तक पहंुचने के लिए चिन्तनशील लोगो के लिए पर्याप्त स्थान छोडा है । इस संविधान की रचना में हमारे वस्तुतः दो उददेश्य है -1 राजनीतिक लोकतंत्र का रूप निर्धारित करना और 2- यह स्थापित करना कि हमारा आदर्श आर्थिक लोकतंत्र है और इसका भी विधान करना कि प्रत्येक सरकार जो भी सत्तामें हो आर्थिक लोक तंत्र लाने का प्रयास रेगी ।
इनके अथक प्रयासों के कारण ही इसी पवित्र संविधान के आधारपर यहां अनुसूचित जाति/जनजाति व अन्य पिछडे वर्गो के इन कमजोर तबके के लोगों को स्वाभिमान की जिन्दगी बसर करने के लिए विेशेष कानूनी सुविधाएं पहली बार नसीब हुई ।
भारत का संविधान समानता और न्याय के आदर्शो पर प्रतिष्ठित है। ऐसी समानता और न्याय की स्थापना का प्रयास राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में किया गया है । इसलिए संविधान धर्म, मूलवंश जाति या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्तियों के किसी वर्ग में भेदभाग का प्रतिषेध करता है । इस आदर्श की प्राप्ति के उद्देश्यों से ही इसने धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व या विधान मण्डलों या सरकारी नौकरियों के लिए पदों के आरक्षण की प्रथा को समाप्त कर दिया है ।
हमारे संविधान निर्माताओं ने उक्त आदर्शो को मूर्त रूप देने के लिए देश के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो के लिए समुचित उपबंध किया है, क्यों कि वे जानते थे कि जब तक इन वर्गो को प्रारंभ में सहायता न दी जायेगी, देश के विकास की गति अवरूद्ध हो जायेगी ।
प्रजातांत्रिक समानता के आदर्श केवल तभी साकार हा सकते है जब कि देश के समस्त वर्गो को एक स्तर पर लाया जाये । इसलिए हमारे संविधान में पिछडे वर्गो को देश के अन्य वर्गो के स्तर पर लाने के लिए कुछ अस्थायी प्रावधान है । और साथ ही साथ अल्पसंख्यक वर्गो के सांस्कृतिक या अन्य अधिकारों के संरक्षण के लिए कुछ अस्थायी प्रावधान की भी व्यवस्था है ताकि बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों पर अत्याचार न कर सकें ।
भारत का संविधान समानता ओर न्याय के आदर्शो पर प्रतिष्ठित है । ऐसे समानता और न्याय की स्थापना का प्रयास राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में किया गया है । इसलिए संविधान धर्म, मूलवंश जाति या जन्मस्थान के आधारपर व्यक्तियों के किसी वर्ग में भेदभाव का प्रतिषेध करता है ं इस आदर्श कीप्रा्िरप्त के उददेश्यों से ही इसने धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व या विधानमण्डलों या सरकारी नौकरियों के लिए पदो के आरक्षण की प्रथा को समाप्त कर दिया है ।
हमारे संविधान निर्मातओं ने उक्त आदर्शो को मूर्त रूप देने के लिए देश के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडे वर्गो के लिए समुचित उपबंध किया है क्यों कि वे जानते थे कि जब तक इन वर्गाे को प्रारंभ में सहायता न दी जायेगी देश के विकास की गति अवरूद्ध हो जायेगी ं प्रजातांत्रिक समानता के आदर्श केवल तभी साकार हो सकते हें जब कि देश के समस्त वर्गो को एक स्तर पर लाया जाये।ं इसलिए हमारे संविधान में पिछडे वर्गो को देशके अय वर्गो के स्तर परलाने के लिए कुछ अस्थायीप्रावधान है और साथ ही साथ अल्पसंख्यक वर्गो के सांस्कृतिक याअन्य अधिकारों के संरक्षण के लिए कुछ अस्थायी प्रावधान की भी व्यवस्था है ताकि बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यों र अत्याचार न कर सकें ।
संविधान में राज्य को जनता के दुर्बलतर और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकारके शोषण से उनका संरक्षण करने का निर्देश दिया गया है ।
संविधान के भाग 3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षणके लिए अनेक उपबंध है । भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समताा और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी प्रदान की गई है। धर्म, मूलवंश, जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध किया गया है ।
संविधान में राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडे हुए वर्गो या अनुसूचति जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबंध करने कहा गया है । संविधान बाबा अम्बेडकर के प्रयासों से सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी प्रदान करता है और इसके संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति लिंग, उदभव, जन्मस्थान, निवास के आधार पर भेद भाव को वर्जित करता है । राज्य उक्त वर्गो के व्यक्तियों के लिए यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है ।
संविधान में भारतीय समाज का एक महान कलंक अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है।ं अनुसूचित आदिम जातियों के हितों की संरक्षा के लिए मूल अधिकारों पर निर्बधन भी लगाया गया है ।
संविधान मेें अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के लिए उपबंध किया गया है । भारत में रहने वाले नागरिकों के किसी वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रख्ने का अधिकार प्रदान किया गया है । सभी अल्पसंख्यक वर्गो को चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हो, अपनी रूचि को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना का अधिकार दिया गया है । शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरूद्ध इस आधार पर विभेद न करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है ।
संविधान अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण हेतु राज्यों को केन्द्रीय सहायक अनुदान का उपबंध करता है । संविधान में निर्वाचन हेतु एक साधारण निर्वाचक नामावली रखी गई है जिसमें केवल धर्म, मूलवंश, जाति लिंग के आधार पर कोई व्यक्ति किसी ऐसी नामावली में सम्मिलित किये जाने के लिए अपात्र नहीं होगा। संविधान में उडीसा, बिहार और मध्य प्रदेश राज्यों में आदिम अनुसूचित जातियों के कलयाण के लिए एक विशेष मंत्री का उपबंध किया गया है । अनुसूचित जातियों अनुसूचित आदिम जातियां , ऐंग्लो इंडियन्स और पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबंध किये गये है ं। भाषायी अल्पसंख्यकों के संरक्षण की व्यवस्था की गई हैं ।
आम्बेडकर के द्वारा तैयार किए गए संविधान को ‘‘सबसे पहला सामाजिक दस्तावेज’’ कहा गया है । भारत के संवैधानिक प्रावधानों या तो सीधे सामाजिक क्रांति या अपनी उपलब्धि के लिए अवश्यक शर्तो की स्थापना से इस क्रांति के उददेश्य को आगे बढाने का प्रायस करते हैं ।
आम्बेडकर महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारांे के लिए तर्क दिए है और यह भी सिविल सेवाओं, स्कूल और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए कालेजों, एक प्रणाली में नौकरियों के लिए आरक्षण एक सकारात्मक कार्यवाई करने के लिए समान प्रणाली शुरू करने के लिए विधान सभा का समर्थन जीता ।
भारतीय संविधान को तैयार करने में लाभदायक भूमिका के कारण डॉ. भीमराव आम्बेडकर लोकप्रिय हैं । भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में पूरे भारत में जाना जाता है । उनके द्वारा सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के प्रयास उल्लेखनीय थे और यही वजह है कि वह दलितों का मसीहा कहा जाता है । संंिवधान मसौदा मे डॉ.भीमराव आम्बेडकर समिति के अध्यक्ष नियुक्त किए गये थे ।
आम्बेडकर ने संविधान के खंडो को लचीला रखा है । ताकि उमें समयानुसार संशोधन किया जा सकते । उन्होने संविधान में एक प्रेरणादायक प्रस्तावना प्रदान की है । सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे को सुनिश्चित करती है । आजतक एक समतावादी समाजिक व्यवस्था का निर्माण इच्छाधारी सोच बनी हुई है ।
डॉ. आम्बेडकर न केवल एक विद्वान और एक प्रख्यात विधिक्ता थे लेकिन वह एक क्रांतिकारी भी थे । जिन्होंने अस्पृश्यता और जाति प्रतिबध्ंा जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लडाई की थी । अपने पूरे जीवन में उन्होंने सामाजिक भेदभाव, दलितों और अन्रू सामाजिक रूप से पिछडे वर्गो के अधिकारों को कायम रखने की लडाई की है । वह न केवल एक महान राष्ट्ीय नेता थे, लेकिन वह अंतर्राष्ट्ीय ख्याति प्राप्त एक प्रतिष्ठित व्यकित् भी थे ।
उन्होंने भारतीय समाज के पिछडे वर्गो के उत्थान के लिए न केवल आंदोलतन किए हैं लेकिन अपने जाति, धर्म, संस्कृति , संवैधानिक कानून और आर्थिक विकास पर अपने कार्यो के माध्यम से भारत मंे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को समझाने में योगदान दिया है । वह देश के पहले कानून मंत्री के रूप में नियुक्त हुए और 1950 में उन्हें भारत रतन से सम्मानित किया गया।
डॉ. आम्बेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माण में एक मौलिक भूमिका निभाई है । उन्होंने संविधान का मसौदा तेयार करने के लिए अपने ज्ञान और अनुभव का इस्तेमाल किया । मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में अपनी क्षमता के अनुसार उन्होंने एक व्यापक व्यवहारिक संविधान का निर्माण किया जिसमे उन्होंने अपने बहु मूल्य विचार शामिल किए । उन्होंने स्वंतत्र भारत को अपना कानूनी ढांचा और लोगो को अपनी स्वतंत्रता का आधार दिया । उन्होंने संविधान मे सभी के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित किया ।
आम्बेडकर ने संविधान में धर्म की स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का उन्मूलन और भेदभाव के सभी रूपों को मिटाने के साथ व्यक्तिगत नागरिकों के लिए एक नागरिक स्वतंत्रताओ की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है । आम्बेडकर ने महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक अधिकारों के उत्थान के लिए भी कहा है ।
भारत का संविधान देश की सर्वोच्च विधि है और यह सभी विधियों का आधार और स्त्रोत है । इसलिए संविधान में धारा का उल्लेख न करके अनुच्छेद का उल्लेख किया गया है । कोई भी विधि संविधान के उपबंधों का अतिलंघन, अति क्रमण, उल्लंघन करने की दशा में असंवैधानिक मानी जाती है ।
भारत के संविधान में जहां मूल अधिकार उसकी आत्मा है, नीति निर्देशक तत्व उसका शरीर है, संवैधानिक उपचारो का अधिकार उसे प्राण वायु प्रदान कर एक जीवन्त शरीर का रूप प्रदान कर बाबा आम्बेडकर के सपनो के देव तुल्य पुरूष के रूप में संविधान को प्रस्तुत करता है ।
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